महाराजा वीरसेन पासी

Schedule

Sun, 18 Jan, 2026 at 01:30 pm

UTC+05:30

Location

Miller Ganj | Ludhiana, PB

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जय पासी धर्म रक्षक वीर
राजा नल और रानी दयवंती की कहानी तो सुनी होगी ! लेकिन इतिहास नही समझा होगा ! नल का तालाब बाढ से गोमती नही मे समा गया और इतिहास पौराणिक भवंर के रसातल मे चला गया ! समुद मंथन जारी है सच्चाई समझने मे क्यों लहचारी । ध्यान से पढें और समझें।
महाराजा नल और महाराजा
वीर सेन का उल्लेख रामायण और महाभारत मे :- पौराणिक महाकाव्य महाभारत के वन पर्व[वन पर्व महाभारत 52.55 ] तथा अनुशासन पर्व [अनुशासन पर्व महाभारत 115.65 ] में हुआ है, जो कि निषध देश के एक राजा थे तथा राजा नल के पिता थे।
क्रोध रक्तेक्षणः श्रीमान् पुनरुत्थाय स प्रभुः ।
प्रहर्तु चक्रमुद्यम्य ह्यतिष्ठतपुरुषर्षभः ।।
तस्य चक्रं महारौद्रं कालादित्यसमअभम्।
व्यष्ट यदीनात्मा वीरभद्रष्षिवः प्रभुः ।।(षिवपुराण)
‘‘अनायासेना हन्वैतान्वीरभद्रस्ततोग्निना। ज्वालयामास सक्रोधोदीप्ताग्निष्षलभानिव।।’’
त्रिपंचाशत्तम (53) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18
(“निषधेषु महीपालो वीरसेन इति श्रुतः ।
तस्य पुत्त्रोऽभवन्नाम्ना नलो धर्म्मार्थकोविदः ॥”)
नल-दमयन्ती के गुणों का वर्णन, उनका परस्पर अनुराग और हंस का दमयन्ती और नल को एक-दूसरे के संदेश सुनाना
बृहदश्व ने कहा- धर्मराज! निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम से प्रसिद्ध एक बलवान् राजा हो गये हैं। वे उत्तम गुणों से सम्पन्न, रूपवान् और अश्व संचालन की कला में कुशल थे। जैसे देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के शिरमौर हैं, उसी प्रकार राजा नल का स्थान समस्त राजाओं के ऊपर था। वे तेज में भगवान् सूर्य के समान सर्वोपरि थे। निषध देश के महाराज नल बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, द्यूतक्रीड़ा के प्रेमी, सत्यवादी, महान् और एक अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। वे श्रेष्ठ स्त्रियों को प्रिय थे और उदार, जितेन्द्रिय, प्रजाजनों के रक्षक तथा साक्षात् मनु के समान धनुर्धरों में उत्तम थे।
इसी प्रकार उन दिनों विदर्भ देश में भयानक पराक्रमी भीम नामक राजा राज्य करते थे। वे शूरवीर और सर्वसद्गुणसम्पन्न थे। उन्हें कोई संतान नहीं थी। अतः संतान प्राप्ति की कामना उनके हृदय में सदा बनी रहती थी। भारत! राजा भीम ने अत्यन्त एकाग्रचित्त होकर संतान प्राप्ति के लिये महान् प्रयत्न किया। उन्हीं दिनों उनके यहाँ दमन नामक ब्रह्मर्षि पधारे। राजेन्द्र! धर्मज्ञ तथा संतान की इच्छा वाले उस भीम ने अपनी रानी सहित उन महातेजस्वी मुनि को पूर्ण सत्कार करके संतुष्ट किया। महायशस्वी दमन मुनि ने प्रसन्न होकर पत्नी सहित राजा भीम को एक कन्या और तीन उदार पुत्र प्रदान किये। कन्या का नाम था दमयन्ती और पुत्रों के नाम थे-दम, दान्त और दमन। ये सभी बड़े तेजस्वी थे। राजा के तीनों पुत्र गुणसम्पन्न, भयंकर वीर और भयानक पराक्रमी थे। सुन्दर कटि प्रदेश वाली दमयन्ती रूप, तेज, यश, श्री और सौभाग्य के द्वारा तीनों लोकों में विख्यात यशस्विनी हुई। जब उसने युवावस्था में प्रवेश किया, उस समय सौ दासियां और सौ सखियां वस्त्रभूषणों से अलंकृत हो सदा उसकी सेवा में उपस्थित रहती थीं। मानों देवांगनाएं शची की उपासना करती हों।
अनिन्द्य सुन्दर अंग वाली भीमकुमारी दमयन्ती सब प्रकार के आभूषण से विभूषित हो सखियों की मण्डली में वैसी ही शोभा पाती थी, जैसे मेघमाला के बीच विद्युत् प्रकाशित हो रही हो। वह लक्ष्मी के समान अत्यन्त सुन्दर रूप से सुशोभित थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों में भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखने में नहीं आती थी। मनुष्यों तथा अन्य वर्ग के लोगों में भी वैसी सुन्दरी पहले न तो कभी देखी गयी थी और न सुनने में ही आयी थी। उस बाला को देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता था। वह देववर्ग में भी श्रेष्ठ सुन्दरी समझी जाती थी। नरश्रेष्ठ नल भी इस भूतल के मनुष्यों में अनुपम सुन्दर थे। उनका रूप देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो नल के आकार में स्वयं मूर्तिमान् कामदेव ही उत्पन्न हुआ हों। लोग कौतूहलवश दमयन्ती के समीप नल की प्रशंसा करते थे और निषधराज नल के निकट बार-बार दमयन्ती के सौन्दर्य की सराहना किया करते थे।
कुन्तीनन्दन! इस प्रकार निरन्तर एक-दूसरे के गुणों को सुनते-सुनते उन दोनों में बिना देखे ही परस्पर काम (अनुराग) उत्पन्न हो गया। उनकी वह कामना दिन-दिन बढ़ती ही चली गयी। "
नरपति चन्द्रविक्रम विक्रमादित्य एक महान सम्राट थे, जिन्होंने उज्जैन से शासन किया था (सन् 72 से सन् 86)लोक परंपरा के अनुसार उनके दरबार में 9 प्रसिद्ध विद्वान थे।
विक्रमादित्य का नवरत्न:
'' धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह शंकु वेताल भट्ट घटखर्पर कालिदास:।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते: सभायां रत्नानि वे वररूचिर्नव विक्रमस्य।। ''
विक्रमादित्य के अभिलेखों में हमें निम्नलिखित पांच मुख्य अधिकारियों के नाम मिलते हैं -
विक्रमादित्य के इस सामंत का उल्लेख संकानिक-उदयगिरि अभिलेख में मिलता है।
अमरकदेव - सांची में विक्रमादित्य के सेनापति थे।
महाराजा वीरसेन - विदेश और युद्ध मंत्री। वह था। शिखर स्वामी एक मंत्री और दरबारी थे।
इस प्रकार, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सुबंधु, घाटखरपार, शपनक, वीरसेन के बीच समानता यह थी कि ये सभी विक्रमादित्य के दरबार में थे।
वीरसेन (निषध) - वीरसेन जो कि निषध देश के एक राजा थे। भारशिव राजाओं में वीरसेन सबसे प्रसिद्ध राजा था। कुषाणों को परास्त करके अश्वमेध यज्ञों का सम्पादन उसी ने किया था। ध्रुवसंधि की 2 रानियाँ थीं। पहली पत्नी महारानी मनोरमा कलिंग के राजा वीरसेन की पुत्री थी और वीरसेन (निषध) के 1 पुत्री व 2 पुत्र हुए थे:-
1- मदनसेन (मदनादित्य) – (निषध देश के राजा वीरसेन का पुत्र) सुकेत के 22 वेँ शासक राजा मदनसेन ने बल्ह के लोहारा नामक स्थान मे सुकेत की राजधानी स्थापित की। राजा मदनसेन के पुत्र हुए कमसेन जिनके नाम पर कामाख्या नगरी का नाम कामावती पुरी रखा गया।
2 - राजा नल - (निषध देश के राजा वीरसेन का पुत्र)
निषध देश पुराणानुसार एक देश का प्राचीन नाम जो विन्ध्याचल पर्वत पर स्थित था।
3 - मनोरमा (पुत्री) - अयोध्या में भगवान राम से कुछ पीढ़ियों बाद ध्रुवसंधि नामक राजा हुए । उनकी दो स्त्रियां थीं । पट्टमहिषी थी कलिंगराज वीरसेन की पुत्री मनोरमा और छोटी रानी थी उज्जयिनी नरेश युधाजित की पुत्री लीलावती । मनोरमा के पुत्र हुए सुदर्शन और लीलावती के शत्रुजित ।

राजा वीरसेन भरपासी था
भारशिव राजाओं में सबसे प्रसिद्ध राजा वीरसेन भरपासी था।जब कुषाण अपना राज्य विस्तार भारत में कर रहे थे और बौद्ध धर्म का प्रचार कर रहे थे तब कुषाणों के रस्ते का काटा भारशिव राजा वीरसेन भरपासी थे महाराजा वीर सेन कुषाणों को कई बार चेतावनी दे चुके थे लेकिन कुषाण नही माने
कुषाण भारत में बौद्ध धर्म का विस्तार कर रहे थे
महाराजा वीरसेन भरपासी ने कुषाणों को परास्त करके उनको चीन के सीमाओं के अंदर तक खदेड़ दिया और बौधों का राज्य भी छीन लिया बौद्ध राजाओ को भारत की सीमा में न घुसने की हिदायत दी इस विजय अभियान के बाद महाराजा वीरसेन पासी ने फिर 7 अश्वमेध यज्ञों का सम्पादन किया था। उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद ज़िले में एक शिलालेख मिला है, जिसमें इस प्रतापी राजा का उल्लेख है। सम्भवत: इसने एक नये सम्वत का भी प्रारम्भ किया था।
मगध की विजय
कुषाण जो बौद्ध धर्म को मानने वाले थे शासन से विमुक्त हो जाने के बाद भी कुछ समय तक पाटलिपुत्र पर महाक्षत्रप वनस्पर के उत्तराधिकारियों का शासन रहा। वनस्पर के वंश को पुराणों में 'मुरुण्ड-वंश' कहा गया है। इस मुरुण्ड-वंश में कुल 13 राजा या क्षत्रप हुए, जिन्होंने पाटलिपुत्र पर शासन किया।
245 ई. के लगभग फूनान उपनिवेश का एक राजदूत पाटलिपुत्र आया था। उस समय वहाँ पर ये कुषाण बौद्ध क्षत्रप मुरुण्ड भी कहाते थे।
278 ई. के लगभग पाटलिपुत्र से भी कुषाणों का शासन समाप्त हुआ। इसका श्रेय वाकाटक वंश के प्रवर्तक विंध्यशक्ति को है। पर इस समय वाकाटक लोग भारशिवों के सामन्त थे। भारशिव राजाओं की प्रेरणा से ही विंध्यशक्ति ने पाटलिपुत्र से मुरुण्ड शासकों का खदेड़ कर उसे कान्तिपुर के साम्राज्य के अन्तर्गत कर लिया था। मगध को जीत लेने के बाद भारशिवों पासी राजाओ ने और अधिक पूर्व की ओर भी अपनी शक्ति का विस्तार किया। जहाँ जहाँ कुषाण बौधों के शासन थे राजा वीरसेन पासी ने उन बौधों को चीन की सीमाओं तक खदेड़ दिया और उन पासी राजाओ ने बौधों के राज्य अपने कब्जे में ले लिया उसके कई वर्षों बाद बौद्ध कुषाण भारत की सीमाओं पर नही भटके
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